आप फिक्र न कीजिए, मेहरून बेटी. मैं प्लौट बेच कर आप के बीएड का खर्च पूरा करूंगा.’ अब्बू का खत आया था. इस से तो अच्छा होता मैं बीएड कर के नौकरी करती, फिर शादी करती. पर समाज के तानों ने अम्मी और अब्बू का जीना मुहाल कर दिया था. बीएड के ऐंट्रैंस एग्जाम में मैं पास हो गई थी. मेरी क्लासेस शुरू हो गईं. चारदीवारी की घुटन से निकल कर खुली हवा सांसों में भरने लगी. लेकिन घर से महल्ले की सरहद तक हिजाब कर के बसस्टौप तक बड़ी मुश्किल से पहुंचती थी.
‘यार, तुम कैसे बुरका मैनेज करती हो? तुम्हें घुटन नहीं होती? सांस कैसे लेती हो? मैं होती तो सचमुच नोंच कर फेंक देती और हिजाब करवाने वालों का भी मुंह नोंच लेती. चले हैं नौकरी करवाने काला लबादा पहना कर. शर्म नहीं आती लालची लोगों को,’ पौश कालोनी की सहपाठिन मेहनाज बोली थी.
‘मेहर में इतनी हिम्मत कहां कि वह ससुराल वालों का विरोध कर सके. यह तो गाय जैसी है. उठ कहा, तो उठ गई. बैठ कहा, तो बैठ गई. पढ़ीलिखी बेवकूफ और डरपोक है,’ शेरी मैडम के तंज का तीर असमर्थता के सीने पर धंसा. खचाक, मजबूरियों के खून का फौआरा छूटता, दर्दीली चीख उठती, आंखों में खून उतर आता, दुपट्टे का एक कोना खारे पानी के धब्बों से भर जाता.
‘तुम्हें वजीफा मिला है मेहर, नोटिस बोर्ड पर लिस्ट लगी है,’ मेहनाज ने चहकते हुए मु झे खबर दी थी.
‘सचमुच,’ खुश हो गई थी मैं.
‘हां, सचमुच, देख इन पैसों से कुछ अच्छे कपड़े और एग्जाम के लिए गाइड खरीद लेना. सम झी, मेरी भोली मालन,’ मेहनाज ने राय दी थी. ‘ठीक है,’ कह कर मैं घर की तरफ जाने वाली बस में चढ़ गई थी.