लेखक- डा. मनोज मोक्षेंद्र
फ्लैट कल्चर हमें कभी रास नहीं आया. जिस दिन से उस फ्लैट में कदम रखा था, कोई न कोई अनचाही या यों कहिए कि मन के खिलाफ बात हो ही जाती थी. लाख तरीके अपनाने पर भी प्राइवेसी भंग हो जाती थी. दरवाजा भले ही अपनी सहूलियत के लिए भेड़ कर रखा हो, कोई न कोई कौलबैल बजा कर सीधे अंदर घुस आता था किचन और डायनिंगरूम तक, जैसे कि यह कोई घर न हो कर सराय हो. ‘बहनजी, सब्जी वाला आया है, सब्जियां ले लो’, ‘भाभीजी, कपड़े इस्तरी कराने हैं क्या’, ‘मैम, टंकी में पानी फुल कर लेना, वरना 10 बजे बिजली गुल होने के बाद आप को दिक्कत हो जाएगी’ वगैरावगैरा.
मेरी पत्नी को इन बातों से कोई ज्यादा असुविधा नहीं होती थी क्योंकि पड़ोसी खुद हमारी सुविधाओं के लिए चिंतित दिखाई देते थे. पर एक दिन भीमसेनजी ऐन सवेरे का चायनाश्ता करते वक्त, अंदर तक घुसते चले आए, ‘‘भाई साहब, ऊपर वाले उमाकांतजी ने रेलिंग पर गीले कपड़े फैला रखे हैं. बारबार कहने पर भी वे अपनी आदत से बाज नहीं आ रहे हैं. चलिए, हम मिल कर उन के आगे अपनी आपत्ति दर्ज कराते हैं.’’
‘‘हद हो गई,’’ भुनभुनाते हुए मैं उन के साथ उमाकांतजी से शिकायत करने चला गया.
पर भीमसेनजी की ओर से उमाकांतजी से शिकायत करने का नतीजा बुरा निकला और उन की लौबी वाले उन के चहेते मेरे खिलाफ हो गए. सुबह जब गेट खोला तो पड़ोसी भाभियों की गीली साडि़यां हमारे फ्लैट के ऊपर लटक रही थीं. उन्हें जानबूझ कर ठीक से न निचोड़े जाने के कारण उन से पानी धार से टपक रहा था. मैं ने पत्नी कुलदीपा को हिदायत दी कि इस मसले को तूल मत देना, मैं उन्हें प्यार से समझा दूंगा.