लेखिका- प्रेमलता यदु
निर्धारित समय पर हम रेलवे स्टेशन पहुंचे और जैसे ही हम अपने आरक्षित बर्थ के निकट पहुंचे, मैं ने लपक कर विन्डो सीट अपने भाई से हथिया ली. वह खिसियाया हुआ मुझे तिरछी नजरों से घूरने लगा. लेकिन मैं उस की परवा किए बगैर विन्डो सीट पर जम कर बैठ गई. कुछ समय बाद ट्रेन धीमी गति से चलने लगी और देखते ही देखते उस की रफ़्तार तेज़ हो गई.
एक के बाद एक सारे स्टेशन पीछे छुटते जा रहे थे और मैं खिड़की पर अपनी कुहनी टिकाए बाहर के नज़ारे व प्रकृति का मनोरम दृश्य देखने में लीन हो गई. गांव पहुंचे तो देखा बूआ भी अपने दोनों बच्चों के साथ आ चुकी थीं. सब से मिल कर सफ़र की सारी थकान उड़नछू हो गई और हम सब बच्चों की टोली भी पूर्ण हो गई.
रात के खाने और दादी की कहानियों के पश्चात दूसरे दिन जब मैं नहा कर अपने बालों को सुखाने छत पर गई और बेसुध हो अपने बालों को झटकने लगी तभी सहसा मेरी नज़रें सामने वाले छत पर जा टिकीं और मेरा जी धक से हुआ. मेरी सांसें थमने लगीं. ऐसा लगा जैसे किसी ने ठहरे हुए पानी में कंकड़ फेंक दिया हो. दिल में अजीब सी हलचल व तरंगें उठने लगीं. मैं ने देखा व्हाइट टीशर्ट और ब्लू जींस में एक हैंडसम डैशिंग लड़का आंखों में ऐनक चढ़ाए, हाथों में किताब लिए कुछ पढ़ रहा है. मेरी निगाहें उसी पर ठहर गईं. वह मेरे दिल में मच रही खलबली से बेखबर अपनी ही धुन में किताब पर आंखें गड़ाए बैठा था.