लेखक- नारायण सिंह मेहरा
टैक्सी हिचकोले खा रही थी. कच्ची सड़क पार कर पक्की सड़क पर आते ही मैं ने अपने माथे से पंडितजी द्वारा कस कर बांधा गया मुकुट उतार दिया. पगड़ी और मुकुट पसीने से चिपचिपे हो गए थे. बगल में बैठी सिमटीसिकुड़ी दुलहन की ओर नजर घुमा कर देखा, तो वह टैक्सी की खिड़की की ओर थोड़े से घूंघट से सिर निकाल कर अपने पीछे छोड़ आए बाबुल के घर की यादें अपनी भीगी आंखों में संजो लेने की कोशिश कर रही थी.
मैं ने धीरे से कहा, ‘‘अभी बहुत दूर जाना है. मुकुट उतार लो.’’
चूडि़यों की खनक हुई और इसी खनक के संगीत में उस ने अपना मुकुट उतार कर वहीं पीछे रख दिया, जहां मैं ने मुकुट रखा था. चूडि़यों के इस संगीत ने मुझे दूर यादों में पहुंचा दिया. मुझे ऐसा लगने लगा, जैसे मेरे अंदर कुछ उफनने लगा हो, जो उबाल आ कर आंखों की राह बह चलेगा. आज से 15 साल पहले मैं इसी तरह नंदा को दुलहन बना कर ला रहा था. तब नएपन का जोश था, उमंग थी, कुतूहल था. तब मैं ने इसी तरह कार में बैठी लाज से सिकुड़ी दुलहन का मौका देख कर चुपके से घूंघट उठाने की कोशिश की थी. वह मेरा हाथ रोक कर और भी ज्यादा सिकुड़ गई थी.
मैं ने उसे अभी तक देखा ही नहीं था. मैं ने चाचाजी की पसंद को ही अपनी पसंद मान लिया था. अब उसे देखने के लिए मन उतावला हो रहा था. नंदा को पा कर मैं फूला नहीं समा रहा था. वह भी खुश थी. भरेपूरे परिवार में वह जल्दी ही हिलमिल गई. मां उस की तारीफ करते नहीं अघाती थीं. घर में जो भी औरतें आतीं, वे अपनी बहू से उन्हें जरूर मिलाती थीं. अपने 5 बेटों और बड़ी बहू का वे उतना ध्यान नहीं रखतीं, जितना उस का रखती थीं. सासससुर की देखरेख, देवरननदों की पढ़ाई की सुविधा जुटाना, मुझे कालेज में जाने के लिए कपड़े, जूते, किताबें तैयार कराना, नौकरचाकरों को अपनी देखरेख में काम कराना उस के जिम्मे लगने लगा था. अगर मैं कभीशहर घूम आने या अपने दोस्तों के यहां चलने के लिए कहता, तो वह धीरे से कह देती, ‘ससुरजी को दवा देनी है. नौकरों से सब्जी की गुड़ाई करानी है. जानवरों के सानीपानी देना है. जेठानीजी अकेले कहां करा पाएंगी इतना सारा काम? मैं चली जाऊंगी, तो सासूमां को तकलीफ उठानी पड़ेगी. आज नहीं, फिर कभी.’