सुपर मार्केट से होली के त्योहार का सामान खरीद कर पार्किंग में गाड़ी के पास पहुंचा तो बगल में ही किसी को गाड़ी पार्क करते देखा. पीछे से हुलिया जानापहचाना सा लगा. महिला ने रिमोट से गाड़ी को लौक किया और चाबी को पर्स में डाल कर जैसे ही मेरी तरफ पलटी, मेरे मुंह से अनायास ही निकल गया-
‘‘अरे जरी, आप? यहां कब आईं?’’
‘‘नलिनजी,’’ अभिवादन के लिए दोनों हाथ जोड़ दिए, ‘‘नमस्ते, कैसे हैं आप? नैना कैसी है? मैं पिछले महीने ही यहां आई हूं.’’
वही 30 साल पुराना शालीन अंदाज. आवाज में वही ठहराव. चेहरे पर वही चिरपरिचित सौम्य सी मुसकराहट. जरा भी नहीं बदली जरी.
‘‘आप 1 महीने से यहां हैं और हमें खबर तक नहीं दी,’’ मैं ने नाराजगी दिखाते हुए अधिकारपूर्वक जवाब तलब किया.‘‘दरअसल, वो घर को व्यवस्थित करने में...’’ विषम परिस्थितियों की पीड़ा का कभी भी खुलासा न करने का वही बरसों पुराना अंदाज. इसलिए मैं ने नहीं कुरेदा.
‘‘मैं घर ही जा रहा हूं, आप भी साथ चलिए न. नैना आप के लिए बहुत चिंतित है,’’ मैं ने आग्रह किया.
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‘‘जी, अभी तो मुमकिन नहीं हो सकेगा. यह मेरा फोन नंबर है. नैना जब भी फुरसत में हो कौल कर लेगी तो मैं हाजिर हो जाऊंगी,’’ पर्स से विजिटिंग कार्ड निकाल कर मेरी तरफ बढ़ाते हुए वह बोली और धीमेधीमे कदम बढ़ाते हुए बाजार की भीड़ में खो गई. मैं स्तब्ध खड़ा उसे आंखों से ओझल होने तक देखता रहा.
किसी गाड़ी के हौर्न ने चौंका दिया, और मैं खुद को असमंजस की स्थिति से बाहर निकालने की नाकाम कोशिश करते हुए गाड़ी स्टार्ट करने लगा.