अब शहर में चहलपहल बढ़ रही थी. नावें एक तरफ हो चुकी थीं. उस की जगह राहत गाडि़यों ने ली जो पूरे शहर में घूम रही थीं. जहां पानी उतर चुका थो वहां कीचड़ ही कीचड़ था. पर अभी भी बेसमैंट में पानी भरा हुआ था, जिसे उस के मालिक पंप से निकालने की कोशिश कर रहे थे. इतना पानी था कि 24 घंटे पंप चलने के बाद भी पानी निकल नहीं पाया. दुकान का फर्नीचर, जो प्लाइवुड का था, पानी में रह कर किताब, मतलब, परतदार बन चुका था. सामान का तो पूछो ही मत. सबकुछ जैसे शून्य हो गया. पार्किंग में खड़ी गाडि़यां खराब हो चुकी थीं और सर्विस सैंटर के आगे लंबी लाइनें लगी थीं. सर्विस सैंटर ने भी पूरे गुजरातभर से अपने कारीगर यहां बुलाए. चारों तरफ तबाही के मंजर थे.
सूरत आए हुए 5वां दिन था. आज हमें वराछा विस्तार में भेजा गया था. यह सूरत का सब से पौश विस्तार गिना जाता था. यह रईसों का इलाका माना जाता है. यहां पूरे सूरत शहर की तरह बड़ीबड़ी इमारतों की जगह बड़ेबड़े बंगले थे. ऐसे ही एक बड़े बंगले के सामने खाली जगह, जहां पेवर ब्लौक का मैदान था, हम ने अपनी एंबुलैंस पार्क की.
मैं वहीं मैडिसिन ले कर चाइना मोजैक की बैंच पर बैठ गया. यहां मरीजों के आने की संभावना बहुत ही कम थी. कुछ ही देर बाद एक सज्जन नए मौडल की मर्सिडीज गाड़ी से उतरे. उन्होंने इस मौसम में भी सफेद झक नए कपड़े पहने हुए थे. पायजामे के किनारे कीचड़ लगा हुआ था. उन की दोनों हाथों की दस की दस उंगलियों में महंगे हीरेरत्न, जो सोने की भारीभरकम अंगूठियों में मढे़ हुए थे, दिख रहे थे. पीछे से उन का वरदीधारी ड्राइवर बहुत सारा सामान ले कर उतरा.