लेखक- सत्य स्वरूप दत्त
एकाएक मुझे अपने शरीर में ढेरों कांच के पैने टुकड़ों की चुभन की पीड़ा महसूस हुई. लड़कों ने क्या पड़ोसी धर्म निभाया है. मेरे मुंह से हठात निकला, ‘‘लगता है क्रिकेटर लक्ष्मण बनने की शुरुआत ऐसे ही होती है.’’
तभी पड़ोसी ने सांत्वना दी, ‘‘अच्छा हुआ कि आप कार में नहीं बैठे थे. अब छोडि़ए, अड़ोसपड़ोस के बच्चे हैं. उन्हें हम लोग प्रोत्साहन नहीं देंगे तो कौन देगा और बच्चे खेलें भी तो कहां खेलें.’’
प्रोत्साहन? मैं खून का घूंट पी कर रह गया और सोचा, जब तक अपने पर नहीं बीतती, स्थिति की गंभीरता का अनुभव नहीं होता, दूसरे की चुभन का एहसास नहीं होता.
‘‘गाड़ी का दुर्घटना बीमा है न?’’
‘बीमा,’ यह शब्द सुनते ही मुझे अचानक डूबते को तिनके का सहारा जैसा एहसास हुआ.
‘‘हां है. 5 साल से है. अभी एक सप्ताह पहले ही पालिसी का नवीनीकरण कराया है.’’
‘‘फिर क्या चिंता है?’’
क्या चिंता है, सुन कर मैं चौंका. पैसा किसी का भी जाए, नुकसान तो नुकसान है और कोई भी नुकसान चिंता का विषय होना ही चाहिए.
देखते ही देखते अड़ोसपड़ोस के बच्चे मेरे आसपास जमा हो गए.
‘‘क्या हुआ अंकल?’’
‘‘ओह शिट.’’
बच्चे मेरे मुंह से निकले शब्दों की अनसुनी कर बोले, ‘‘आप एक किनारे हो जाइए अंकल, हम कांच साफ कर देते हैं. आप ऐसे में बैठेंगे कैसे?’’
आननफानन में बच्चों ने कांच के टुकड़े साफ कर दिए. शायद वे प्रायश्चित्त कर रहे थे या फिर अपने अच्छा नागरिक होने का परिचय दे रहे थे.
लगभग 10 बज रहा था. सोचा, बीमा कंपनी का आफिस खुल गया होगा, वहां चल कर दुर्घटना की सूचना दे दूं. उन्हें दुर्घटना हुई कार को देखने का अवसर भी मिल जाएगा. यदि बिना दिखाए ‘विंड स्क्रीन’ बदलवा लूंगा तो वह विश्वास नहीं करेंगे. फिर कुछ कागजी काररवाई भी करनी होगी.