अब बाई भी सच पर उतर आई थी, ‘‘इंसान की शक्ल में भेडि़या है भेडि़या. दिनरात गाली बकता है, दारू पीता है.’’
‘‘बसु कहां है?’’ मैं ने पूछा.
‘‘अस्पताल में है. बिटिया हुई है.’’
मैं ने बाई की बात सुन कर मां को बताया और फिर औटो कर के हम अस्पताल पहुंच गईं.
बसु सरकारी अस्पताल के बिस्तर पर अकेली लेटी थी. मैं ने जैसे ही उस के सिर पर हाथ फेरा. उस की आंखों से अश्रुधारा बह निकली. पता नहीं ये आत्मग्लानि के आंसू थे या पश्चात्ताप के... पास ही झूले में लेटी उस की बिटिया को गोद में उठा कर मैं ने बसु से पूछा, ‘‘रवि कहां हैं?’’
‘‘व्यस्त होंगे वरना जरूर आते,’’ उस ने बिना मेरी ओर देखे अपना मुंह दूसरी ओर मोड़ लिया.
बसु मुझे धोखे में रखना चाह रही थी या खुद धोखा खा रही थी. पता नहीं, क्योंकि जिस रात बसु प्रसव पीड़ा से छटपटा रही थी उस रात रवि अपनी पत्नी के साथ था.
एक बार बसु ने बताया था कि अपने दोनों बेटों के प्रसव के समय शुभेंदु पूरी रात अस्पताल के कौरिडोर में दिसंबर की कड़कड़ाती ठंड में चहलकदमी करते रहे थे. अपनी पत्नी या बच्चों की जरा सी भी पीड़ा वे बरदाश्त नहीं कर पाते थे. आज बसु खुद को कितना अकेला महसूस कर रही होगी. उधर रेगिस्तान में लू के थपेड़ों के बीच शुभेंदु ने भी कितने अनदेखे दंश खाए होंगे. यहां भी उन के लिए मरुभूमि के अतिरिक्त क्या था?
औरत विधवा हो या परित्यक्ता, पुनर्विवाह करने पर बरसों अपने पूर्व पति को भुला नहीं पाती. यादें कोई स्लेट पर लिखी लकीरें तो नहीं होतीं कि जरा सा पोंछने पर ही मिट जाएं. सहज नहीं होता एक नीड़ को तोड़ कर, दूसरे नीड़ की रचना करना. बसु ने कैसे भुलाया होगा शुभेंदु को? अपने बच्चों की नोकझोंक, उठतेबैठते शुभेंदु की बसुबसु की गुहार क्या उसे पुराने परिवेश में लौट जाने के लिए बाध्य नहीं करती होगी या फिर जानबूझ कर शुभेंदु को भुलाने का नाटक कर रही है?