थोड़ा माहौल बदला तो उस ने मुझ से प्रश्न किया, ‘‘शुभेंदु से भेंट हुई? आजकल देहरादून में ही अपनी भवननिर्माण कंपनी खोली है उन्होंने.’’
मैं ने विस्तार से वहां की समृद्धि, शुभेंदु की ख्याति और काम का वर्णन किया तो उस की आंखें नम हो गईं.
‘‘इतनी सुखी गृहस्थी को लात मार कर क्यों चली आई तू? आज भी शुभेंदु की हर सांस में तेरी यादें हैं, मुसकराहटें हैं. घर के हर कोने में तेरी अमिट छाप आज भी दिखाई देती है. क्या मिला तुझे अपना नीड़ तोड़ कर?’’
विरह की अग्नि में उस का हृदय मानों जल उठा हो. ‘‘गणित नहीं है जिंदगी जिस के हर सूत्र का एक स्पष्ट उत्तर हो. न जाने कौन सा झंझावात आया और उड़ा ले गया मेरी गृहस्थी का सुखचैन. वह घटना कीचड़ की तरह मेरे मनमस्तिष्क से चिपक गई और आज तक मेरा पीछा नहीं छोड़ती.’’
वह अंदर से टूट गई थी. स्मृतियों के नाग उस के मस्तिष्क पर फूंफूं कर रेंगने लगे थे.
‘‘कितना विचित्र है इंसान का स्वभाव. जो सरलता से प्राप्त हो जाता है, उस की कोई कीमत नहीं होती उस की नजर में और जो कुछ नहीं मिलता उस की तलाश में वह हर पल भटकता रहता है. काश मैं मृग की तरह अंदर छिपी कस्तूरी की सुगंध से सराबोर होने के बजाय सुगंध कहीं और ढूंढ़ने की कोशिश न करती.’’
अपनी ही नजरों में गिरना कितना कष्टप्रद होता है, इस का एहसास मुझे बसु की बातों से हो गया था. अचानक बसु विद्रोह पर उतर आई थी. उस का पूरा शरीर अपमान की ज्वाला से दग्ध था.