शायद नील के मन में कहीं न कहीं दिया के लिए नरमाहट पैदा हो रही थी परंतु मां का बिलकुल स्पष्ट आदेश...वह करे भी तो क्या? उसे वास्तव में दिया के लिए बुरा लगता था, लेकिन वह अपना बुरा भी तो नहीं होने दे सकता था. उस का अपना भविष्य भी तो त्रिशंकु की भांति अधर में लटका हुआ था. उस के विचारों में उथलपुथल होती रही और इसी मनोदशा में वह 2 प्यालों में चाय ले कर मां के पास डाइनिंग टेबल पर आ बैठा था. मां तब तक बिस्कुट का डब्बा खोल कर बिस्कुट कुतरने लगी थीं.
‘‘मौम, यह ठीक नहीं है.’’
‘‘अब क्या कर सकते हैं? मैं भी कहां चाहती थी कि यह सब हो पर...उस दिन धर्मानंदजी आए थे, तब भी उन्होंने यही बताया कि अभी डेढ़दो साल तक तुम दिया से संबंध नहीं बना सकते. इस के बाद भी तुम दोनों का समय देखना पड़ेगा.’’
‘‘पर मौम, अभी तो हम ने शादी के लिए भी एप्लाई नहीं किया है. फिर...’’
‘‘शादी के लिए एप्लाई करने का अभी कोई मतलब ही नहीं है जब तक इस के सितारे तुम्हारे फेवर में नहीं आ जाते. वैसे भी तुम्हें क्या फर्क पड़ता है?’’ मां ने सपाट स्वर में अपने बेटे
से कहा. ‘‘मैं ने तो आप से पहले ही कहा था. अभी तो नैंसी जरमनी गई हुई है. आएगी तो मैं उस के साथ बिजी हो जाऊंगा पर इस का...’’
‘‘अब बेटा, वह तुम्हारा पर्सनल मामला है. मैं तो कभी नहीं चाहती थी कि तुम नैंसी से रिलेशन बनाओ. वह तुम्हारे साथ शादी करने के लिए भी तैयार नहीं है.’’